Saturday, March 5, 2011

Sadak

एक तन्हाई भरा सफ़र लेके निकला था किसी शेहेर में,न कोई आवाज़ थी मेरे पहचान की न कोई आशा,बस हर तरफ सन्नाटा था हर तरफ थी ख़ामोशी,हर गली हर कूछे से अनजान था,चिपकी थी हर दिवार से एक ख़ामोशी अनजान थी सडकें तो ग़लिया थी गेहरी,मेरी आवाज़ खो जाती थी हर मोड़ पे जाकर. माथे से टपकता  पसीना आँखों से आंसू बनकर टपकता था,एक हलकी सी ठंडी हवा गुजरी मेरे माथे का पसीना पोछती हुई,मुस्कराहट की एक लहर उठ गयी मेरे होटों पे,बहती हुई नदी ने अपना  पता बताया,उनके साथ मुडती हुई ग़लिया मुझसे आंख मिचोली खेलने लगी,सड़के मुझसे अब दौड़ लगाने लगी थी,हर आवाज़ मुझे पुकारने लगी, मेरी पहचान लोगोन की हो चुकी थी,और मैं खोने लगा था उनकी भीड़ में,हर मोड़ पे जाकर मई अपनी वो गली ढूंढने लगा था जिस पर होकर मई इस शेहेर आया था,मगर अज हर मोड़ मुझे एक नयी सड़क देती थी,मैं आज पक्की सडकोपे चलता हु,और ढूँढ़ता हु वही पुराणी गली मेरी अपनी गली,वापस जाने के लिए


आज भी,ये मेरा सफ़र अधूरा सा लगता है,

No comments:

Post a Comment